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वक्रेश्वर की भैरवी

अरुणकुमार शर्मा

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5245
आईएसबीएन :81-7124-491-2

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सत्य घटनाओं पर आधारित योग तंत्रपरक कथाएँ...

Vakreswar ki bhairvi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘वक्रेश्वरी की भैरवी’ योग-तन्त्र-परक कथाओं का संग्रह है। यद्यपि ये अविश्वसनीय और असम्भव-सी लगेगी किन्तु स्वाभाविक भी है। आज के वैज्ञानिक युग में इन पर विश्वास करना मुश्किल है—इन्द्रियों की सीमा से परे घटित घटनाओं पर। इस भौतिक जगत में दो सत्ताएँ हैं—आत्मपरक सत्ता और वस्तुपरक सत्ता।

वस्तुपरक सत्ता के अंतर्गत आने वाली वस्तुओं को तो प्रामाणित किया जा सकता है, लेकिन आत्मपरक सत्ता को नहीं। इसलिए कि आत्मपरक सत्ता की सीमा के अन्तर्गत जो कुछ भी है, उनका अनुभव किया जा सकता है, और उसकी अनुभूति की जा सकती है। अनुभव मन का विषय और अनुभूति है आत्मा का विषय। दोनों में यही अन्तर है। मन का विषय होने के कारण किसी न किसी प्रकार एक सीमा तक अनुभवों को तो व्यक्त किया जा सकता है लेकिन अनुभूति को व्यक्त करने के लिए कोई साधन नहीं है क्योंकि वह है आत्मा का विषय। मन को एकाग्र कर आत्मलीन होने पर इन्द्रियातीत विषयों की अनुभूति होती है।

वेद परम ज्ञान हैं और तंत्र हैं गुह्य ज्ञान, जो अपने आप में अत्यन्त रहस्यमय गोपनीय और तिमिराछन्न है। उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित होने के लिए जहाँ एक ओर योग तंत्र पर शोध एवं अन्वेषण किया, वहीं इसकी ओर प्रच्छन्न, अप्रच्छन्न रूप में संचरण-विचरण करके सिद्ध योगी साधकों और अति गोपनीय ढंग से निवास करने वाले संत-महात्माओं की खोज में हिमालय और तिब्बत की जीवन-मरण-दायिनी हिम-यात्रा भी की। पूरे तीन साल रहा तिब्बत के रहस्यमय वातावरण में। उन्हीं अलौकिक और अभौतिक घटनाओं और चमत्कारपूर्ण अविश्वसनीय अनुभव ‘वक्रेश्वर की भैरवी’ में पढ़िए।

 

दो शब्द

‘वक्रेश्वर की भैरवी’ जिन योग-तन्त्र-परक कथाओं का संग्रह है, वे नि:सन्देह आपको अविश्वसनीय और असम्भव-सी लगेंगी, स्वाभाविक भी है। आज के वैज्ञानिक युग में भला कौन विश्वास करेगा, इन्द्रियों की सीमा से परे घटित घटनाओं पर, लेकिन यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इस भौतिक जगत् में दो सत्ताए हैं-

आत्मपरक सत्ता और वस्तुपरक सत्ता। वस्तुपरक सत्ता के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं को तो प्रामाणित किया जा सकता है, लेकिन आत्मपरक सत्ता का नहीं। इसलिए कि आत्मपरक सत्ता की सीमा के अन्तर्गत जस कुछ भी है, उनका अनुभव किया जा सकता है, और उनकी अनुभूति की जा सकती है। अनुभव मन का विषय है और अनुभूति है आत्मा का विषय। दोनों में ही अन्तर है। मन का विषय होने के कारण किसी न किसी प्रकार तक अनुभवों को तो व्यक्त किया जा सकता है लेकिन अनुभूति को व्यक्त करने के लिए कोई साधिन नहीं है क्योंकि वह है आत्मा का विषय। मन को एकाग्र कर आत्मलीन होने पर इन्द्रियातीत विषयों की अनुभूति होती है।

वेद परम ज्ञान हैं और तंत्र हैं गुह्य ज्ञान, जो अपने आपमें अत्यन्त रहस्यमय गोपनीय तिमिराच्छन्न है। उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित होने के लिए जहाँ एक ओर मैंने योग तंत्र पर शोध एवं अन्वेषण कार्य शुरू किया, वहीं इसकी ओर प्रच्छन्न, अप्रच्छन्न रूप में संचरण-विचरण करके सिद्ध योगी साधकों और अति गोपनीय ढंग से निवास करनेवाले संत-महात्माओं की खोज में हिमालय और तिब्बत की जीवन-मरण-दायिनी हिम-यात्रा भी की। पूरे तीन साल रहा मैं तिब्बत के रहस्यमय वातावरण में।

कहने की आवश्यकता नहीं। अपने इसी खोज अन्वेषण और अपनी यात्रा के सिलसिले में मेरे जीवन में जो भी अलौकिक और अभौतिक घटनाएँ घटीं और चमत्कार पूर्ण अविश्वसनीय अनुभव हुए उन्हें बराबर लिपिबद्ध कर अपनी प्रांजल भाषा में कथा रूप देता रहा। उन्हीं कथाओं में कुछ का संग्रह ‘वक्रेश्वरी की भैरवी’ है, जो आपके सम्मुख है।
मुझे पूर्ण आशा है, और विश्वास भी है कि अन्य कथा-संग्रह की तरह यह कथा संग्रह भी रोचक और ऊर्जा देय सिद्ध होगा।

 

अरुणकुमार शर्मा

 

1
दीपावली की वह रहस्यमयी रात

 

 

सन् 1949 ई.।
अक्टूबर का सिहरन-भरा महीना और दीपावली का दिन। मेरी तांत्रिक साधना का विशेष पर्व।
काशी में कई शक्तिपीठ हैं, जिनमें देवनाथपुरा का शिवाशिव, पंचकोट की श्मशान काली और दुर्गाकुण्ड की दुर्गाजी तंत्र की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं। हर वर्ष की भाँति दीपावली के दिन जब मैं शिवाशिवा  और श्मशान काली का दर्शन-पूजन आदि करने के पश्चात् जब दुर्गाकुण्ड पहुँचा उस समय स्याह कालिमा बिखर चुकी थी वातावरण में। मैंने विधिवत् दुर्गाजी का दर्शन-पूजन किया और मन्दिर के बाहर निकल आया। उन दिनों मन्दिर के पीछे आम, पाकड़, पीपल और बरगद कई घने पेड़ थे और चारों ओर हमेशा छाया रहता था सन्नाटा !

मन्दिर के सामने घना जंगल था जो संकटमोचन तक फैला हुआ था, जिसके बीच एक सँकरी पगडंडी साँप की तरह बलखाती चली गयी थी नरिया और सुन्दरपुर गाँव की ओर। न जाने क्यों और किस प्रेरणा के वशीभूत होकर चल पड़ा मैं उसी पगडंडी पर। जितना बढ़ता उतना ही और-और आगे जाने की इच्छा होती। घने ऊँचे-ऊँचे पेड़-पौधे, ऊँची झाड़ियाँ और उन झाड़ियों के घने झुरमुट, पक्षियों की चहचाहट, बन्दरों की चिकचिक और गिलहरियों की विचित्र आवाज के साथ पेड़ों की डालियों की सरसराहट परिचित से लगे मुझे ! पहली बार जाना हुआ था मेरा उस ओर लेकिन ऐसा लगता था कि भली-भाँति परिचित हूँ मैं वहाँ के जंगली वातावरणों से। विचित्र-सी उदासी थी वहाँ और थी वातावरण में गहरी निस्तब्धता। साँझ की स्याही थोड़ा और गहरा गयी थी। अब न बन्दरों, गिलहरियों और पक्षियों की आवाजें सुनायी दे रहीं और न तो पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट। लगा जैसे वातावरण जड़ीभूत हो गया हो।

 एक हल्की-सी सुगन्ध वातावरण में व्याप्त थी। वह कैसी सुगन्ध थी ? समझ में नहीं आयी मेरी। हल्की ठंडक-सी लगने लगी मुझे। जल्दी से चलता हुआ घने जंगलों से निकलने का प्रयास करता हुआ आगे बढ़ रहा था मैं। और तभी सामने एक खुला स्थान दिखालायी दिया मुझे। जंगल में वह खुला स्थान हरी-हरी घासों से भरा था और जिसके चारों ओर ऊँचे-ऊँचे घने वृक्ष हवा में झूम रहे थे। मैदान बड़ा ही रमणीय और मनोहारी लगा मुझे। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक छोटा-सा मन्दिर दिखलायी दिया। मन्दिर काफी पुराना और जीर्ण-शीर्ण था। आगे टूटी-फूटी दो सीढ़ियाँ थीं। मन्दिर के सामने लकड़ी का एक कुंदा गड़ा था जमीन में, जिस पर सिन्दूर पुता हुआ था। वहा पहुंचने पर वह रहस्यमयी विचित्र सुगन्ध और तेज हो गयी थी। वह सुगन्ध किधर से आ रही थी, समझ न सका मैं। सम्भवत: मैं दूसरी दिशा में निकल आया था। यह बात बड़ी विचित्र-सी लग रही थी कि जंगल इतना विस्तृत कैसे हो गया ? अब मैं मन्दिर के सामने आ गया था। मन्दिर किसका है और कौन देवता उसमें स्थापित हैं ? यह जानना चाहा मैंने। चारों तरफ गहरी नीरवता थी।

 आसपास कोई नहीं दिखालायी दिया मुझे। मन्दिर का टूटा दरवाजा खुला हुआ था। भीतर हल्का-सा प्रकाश था। निश्चय ही मन्दिर के भीतर से वह विचित्र सुगन्ध बाहर आकर फैल रही थी चारों तरफ। वह प्रकाश निश्चय ही मन्दिर में जल रहे दीपक का था, इसमें संदेह नहीं। बाहर कोई पुजारी मिला नहीं। शायद भीतर हो वह मन्दिर के। मन्दिर के भीतर जाने की इच्छा हुई। फिर सोचा कहीं अनाधिकार चेष्टा न हो। और मुझे लगा जैसे मेरा नाम लेकर पुकारा हो किसी ने। चौंक पड़ा मैं। संभवत: मेरा भ्रम रहा हो। यहाँ इस वीरान सुनसान स्थान में और इस सर्वथा अपरिचित मन्दिर के बाहर भला कौन मेरा नाम लेकर पुकार सकता है मुझे। और यहाँ कोई और है भी नहीं। आवाज जब सुनी मैंने तो वह चारों ओर से आती हुई लगी थी मुझे। सिर घुमा कर इधर-उधर देखा, कहीं कोई नहीं। थोड़ी दूर पर पेड़ों की पत्तियाँ अवश्य हिल रही थीं।

अब तक साँझ की स्याह कालिमा रात्रि के गहन अंधकार में बदल चुकी थी। अब मेरे भीतर भय का संचार होने लगा था। सोचने लगा क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? अंधेरे में रास्ता मिलेगा कहाँ ? संभवत: मन्दिर में कोई हो। दीप तो वहाँ प्रकाशित है ही। किसी भी व्यक्ति को मिलने को उत्सुक था मैं उस समय। दुर्गा मन्दिर से किस दिशा में आ गया हूँ यह मालूम करना था मुझे।

सहमते हुए धीरे से मन्दिर के भीतर झाँका। झाँकते ही जिस पर मेरी दृष्टि पड़ी वह थी माँ महामाया भगवती काली की विशाल मूर्ति। मूर्ति काले चमकीले पत्थर की थी काफी पुरानी। माँ महामाया के रक्ताभ नेत्रों में करुणा, दया, अनुकम्पा का मिला-जुला भाव स्पष्ट झलक रहा था, लेकिन उसमें थोड़ा क्रोध का भाव भी था। गले में नरमुण्डों की माला झूल रही थी जो बिल्कुल सजीव-सी लग रही थी। माँ की बाहर निकली हुई जीभ पर लगा शोणित देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अभी-अभी किसी नरपशु का रक्तपान किया हो उन्होंने। बाएँ हाथ में ऊपर की ओर तने हुए विकराल खड्ग और नीचे के हाथ में झूलता हुआ नर–पशु का रक्तरंजित मुण्ड देखकर जहाँ भय और आतंक का संचार होना स्वाभाविक था वहीं मन में शक्ति, सुख और आनंद के अतिरिक्त अभय की  अनुभूति का होना भी स्वाभाविक था वरद और अभय हस्त देख कर माँ का।

पंचमुण्डी आसन पर अट्टास करती हुई शिवारूढ़ा महामाया तंत्र की महाशक्ति महाकाली का रूप अति सजीव प्रतीत हो रहा था। सामने हवन कुण्ड था, जिसमें से धूम्र की पतली रेखायें निकलकर मन्दिर के वातावरण में चारों ओर फैल रही थीं। हवन कुण्ड के बगल में गजाधार पर चौमुखा दीप जल रहा था, जिसके हल्के प्रकाश में माँ की मुखाकृति और अधिक लग रही थी भयानक। अब तक मन्दिर के भीतर प्रविष्ट हो चुका था मैं। जो कुछ देखना शेष था वह भी अब स्पष्ट हो गया था मेरे सामने। बायीं ओर की मटमैली दीवार के सहारे एक काफी लम्बा-चौड़ा भयंकर खड्ग लटक रहा था, जिस पर लगे खून सूख कर काले पड़ गये थे। एक बड़ी-सी थाली में नारियल, माला, जवा पुष्प, कपूर और सिन्दूर रखा हुआ था। मन्दिर के भीतर का वातावरण निश्चय ही भद्रप्रद और रहस्यमय था, इसमें सन्देह नहीं। सिर झुका कर माँ महामाया को प्रणाम किया मैंने दोनों हाथ जोड़कर और तभी किसी से गंभीर आवाज में मेरा नाम पुकारा- बेटा अरुण कुमार ! मुझे लगा मूर्ति बोली है। चौक कर माँ का मुँह देखने लगा मैं। तभी बगल से आवाज आयी, इधर देखो मैं यहाँ हूँ.....!

अब मेरा ध्यान उधर गया। दाहिनी ओर मन्दिर के कोने में कोई बैठा हुआ था। उस पर दीपक का मटमैला हल्का प्रकाश पड़ रहा था। उसी हल्के प्रकाश में ध्यान से आँखे गड़ा कर देखा मैंने। व्याघ्र चर्म के आसन पर एक साधु पद्मासन की मुद्रा में तन कर बैठा हुआ था। उसके सिर पर लम्बी जटायें थीं। शरीर पर लाल वस्त्र था। रंग साँवला था। मस्तक पर लाल सिन्दूर का गोल टीका था। गले में रुदाक्ष स्फटिक और हड्डी के टुकड़ों की मालायें झूल रही थीं। आँखें गूलर की तरह लाल और बाहर की ओर निकली हुई थीं। थोड़ा भय लगा। समझते देर न लगी। वह साधु निश्चय ही कापालिक मार्गीय तंत्र साधक था, इसमें सन्देह नहीं।

मैंने थोड़ा आगे बढ़कर साधु को प्रणाम किया। और मुझे हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया उसने। फिर कहा- ‘‘बैठो बेटा।’’ मैंने चकित होकर पूछा- महाराज ! आप क्या यहाँ के पुजारी हैं ? आप मेरा नाम कैसे जानते हैं ?’’
साधु हो-हो कर हँसा और सामने रखे नर-कपाल को उठाकर मुँह से लगा लिया उसने। निश्चय ही उसमें मदिरा भरी थी, जिसे गट-गट कर पी गया एक ही साँस में वह।
मदिरापान करने के बाद उल्टे हाथ से मुँह पोंछते हुए गंभीर किन्तु विचित्र स्वर में बोला- ‘‘अरुण कुमार, कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ मैं यहाँ इस मन्दिर में। आज के लिए ही तुम्हें आना था। भला तुम्हें मैं नहीं जानूँगा....!’’ मुझे लगा साधु पर दारू का नशा अधिक चढ़ गया है। ऐसे पाखंडी लोग ऐसी बातें करते हैं जिससे साधारण लोग तुरन्त हो जाते हैं प्रभावित।

मैंने भर्राये स्वर में कहा- ‘‘महाराज, मैं तो दुर्गाजी का दर्शन करने आया था, आप....!’’
‘‘हाँ-हाँ बेटे, मुझे सब कुछ ज्ञात है। कई दिनों से तुम्हारी राह देख रहा हूँ मैं।’’
वह भयंकर लगनेवाला साधु अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और माँ काली को प्रणाम कर मन्दिर के बाहर निकल आया बोला- ‘‘मेरे साथ आओ बेटे। घबराओ मत। माँ तुम्हारा कल्याण करेंगी।’’
मैं सचमुच घबरा गया था। पूछा- ‘‘महाराज, मुझे तो इस जंगल से निकलने का रास्ता मालूम करना है। भटक गया हूँ मैं प्रभु।’’
‘‘भटके कहाँ हो। जिस स्थान पर तुम्हें आना था, वहाँ तो आ चुके हो तुम।’’
साधु उसी स्वर में हँसा हो-हो कर। ‘‘दुर्गा मन्दिर जाना तो एक निमित्त मात्र है। तुमको तो यहीं आना था। आज अमावस्या है और है दीपावली की महानिशा बेला।’’

सोचा, किस संकट में आ फँसा मैं। घर पर लोग इन्तजार कर रहे होंगे। पत्नी घबरा रही होंगी कि किसी पागल तांत्रिक के चक्कर में फँस गया हूँ मैं। बड़ी सोचनीय स्थिति थी मेरी उस समय।

जमीन के अन्दर तक धँसे लकड़ी के कुन्दे पर दीपक जल रहा था। कौन जला गया था ? यह जान न सका। आया था तो दीपक नहीं था कुन्दे पर। दीपक का प्रकाश अनुमान से अधिक था, जिसके प्रकाश में साधु को अच्छी तरह से देखा मैंने। छह फुट लम्बा, पुष्ट, शक्तिशाली शरीर, गहरा साँवला रंग, बाल कन्धों पर बिखरे हुए, पहले से अधिक भयभीत हो उठा मैं।
गंभीर स्वर में साधु बोला- ‘‘मेरे साथ आओ।’’
मैं विवशता का अनुभव करने लगा था। लेकिन उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उसकी आज्ञा को टाल न सका मैं। मन्दिर का इलाका पार कर साधु एक बड़े से बरगद के पेड़ के पास आया। पेड़ के नीचे पत्थर का एक चबूतरा था। उसी चबूतरे पर बैठते हुए उसने गंभीर स्वर में उसी चबूतरे पर बैठने का आदेश दिया मुझे। हिचकिचाते हुए बैठ गया मैं, और फिर अनुनय-भरे स्वर में बोला, ‘‘महाराज, मुझे जरा जल्दी है। घर में मेरी पत्नी है। त्यौहार का दिन है। मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी वह।’’

उसने जैसे मेरी बात सुनी ही नहीं। गंभीर स्वर में बोला- ‘‘तुम काली के उपासक हो न ! तुमको दीवान आनन्द नारायण ने भेजा है। उनसे कब मिले थे तुम ?’’
यह सुन एक बारगी मेरा सिर चकरा गया। हकलाते हुए बोला- ‘‘महाराज, मैं काली का उपासक अवश्य हूँ, लेकिन किसी दीवान आनन्द नारायण को मैं नहीं जानता।’’

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